विज्ञान की धारा जीवन को आसान बनाती है।
विज्ञान दिवस के अवसर पर..'साइंटिस्ट खोपड़ी' से..
विज्ञान एक विचार
विज्ञान एक विचार है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कुछ नया खोजना सिर्फ अपेक्षित नहीं है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में निहित पांच कारक तर्क, प्रयोग, अवलोकन, अनुमान और व्यापकता न केवल वैज्ञानिक प्रयोग में बल्कि जीवन के हर मामले में आवश्यक हैं। जब किसी चीज़ का आविष्कार होता है तो उसका श्रेय किसी एक व्यक्ति के नाम पर जाता है, कई बार कई वैज्ञानिकों ने इस पर कड़ी मेहनत की है, जीवन भर कोशिश की है। आइए उदाहरण के तौर पर ऑक्सीजन की खोज का उदाहरण लेते हैं। मनुष्य हजारों वर्षों से जानता है कि प्रत्येक जीवित प्राणी जीवित रहने के लिए ऑक्सीज़न लेता हैं। लेकिन कई वैज्ञानिकों ने यह पता लगाने की कोशिश की है कि, जीवित रहने के लिए वास्तव में, यह कौन सी वायु है? और हम इसे कैसे बना सकते हैं?
दो शताब्दी पहले फिलो ने यूनानी अनुसंधान के साथ एक प्रयोग किया था। उसने एक घड़े में पानी से भरा घड़ाउल्टा रख दिया। बर्तन में पहले से ही एक मोमबत्ती जलाई हुई थी। चंचुपत्र में जितनी ऑक्सीजन थी, जब तक ऑक्सीज़न था तब तक मोमबत्ती जलती रही और फिर बुझ गई। हालाँकि, जैसे-जैसे भीतर की हवा कम हुई, पानी बढ़ता गया, उसने प्रयोग तो सही किया, लेकिन निष्कर्ष गलत निकाला। उसने सोचा कि यह कांच का छेद है, और इसमें से हवा निकल गयी होगी। अगर ठीक से प्रयोग किया जाए, ठीक से देखा जाए और ठीक से अनुमान लगाया जाए यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण में अभिप्रेत होता हैं।, फिलो यहां कम पड़ गया।
कई सदियों के बाद लियोनार्डो द विंची ने इस शो को सफल बनाया. उसके बाद सत्रहवीं शताब्दी में रॉबर्ट बॉयल ने निष्कर्ष निकाला कि जलाने के लिए हवा लगती थी। जॉन मेयो ने आगे बढ़कर कहा कि हवा नहीं तो लौ के लिए हवा के कुछ तत्वों की आवश्यकता होती है। उन्होंने कहा कि, हवा में कुछ सक्रिय और कुछ निष्क्रिय घटक हैं। मेयो ने एक और प्रयोग किया । एक कांच के बर्तन में एक जलती मोमबत्ती और एक पंछी रखा। कांच के बर्तन का ढक्कन लगा दिया गया। तभी पहले मोमबत्ती बुझी और फिर पंछी मर गया। फिर उसने उसी नस्ल के दूसरे पंछी को अकेले उस बर्तन में डाल दिया। ढक्कन लगाने के बाद कुछ क्षणों में यह पंछी भी मर गया, हालाँकि यह पहले पंछी की तुलना में अधिक समय तक जीवित रहा।
मेयो ने साबित किया कि, जलने के लिए और सांस लेने के लिए समान वायु की आवश्यकता होती है। हवा में मौजूद ये गैसें हमारे फेफड़ों को अलग करती हैं, और शरीर के सभी अंगों तक पहुंचाती हैं, जिससे मांसपेशियों में गति होती है। जब तक व्यक्ति जीवित रहता है तब तक उसका शरीर कार्यरत रहता है। इसलिए जीवित व्यक्ति के शरीर का तापमान मृत व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है। केवल तर्क और सरल प्रयोग के माध्यम से मेयो द्वारा निकाले गए इन निष्कर्षों से अगली पीढ़ी के वैज्ञानिकों को लाभ हुआ है। वैज्ञानिक रूप से ऑक्सीजन का पता लगाने के लिए कार्ल शील और प्रिस्टले को श्रेय दिया जाना चाहिए। इन दोनों ने ऑक्सीजन पर स्वतंत्र शोध किया और एक ही समय में सफल भी हुए, प्रिस्टले का नाम स्कूल की किताबों के ज़रिए हम तक पहुंचा,लेकिन कार्ल शील का नाम नहीं पंहुचा।
फायर एयर
कार्ल शील ने 1771 में ऑक्सीजन की खोज की थी, लेकिन उन्होंने अपना शोध प्रकाशित नहीं किया। जब जोसेफ प्रिस्टलेन ने 1774 में ऑक्सीजन पर अपना शोध प्रकाशित किया, तो उन्हें एहसास हुआ कि बाज़ी उनके हाथ से फिसल गयी हैं। इसमें 1771 पोटेशियम नाइट्रेट और मरकरी ऑक्साइड के साथ मिश्रण गर्म कर, ऑक्सीज़न वायु तैयार किया था। यह गैस ज्वलन में मदद कर रही थी, इसलिए उन्होंने इस गैस का नाम ‘फायर एयर’ रखा। 1774 में प्रयोग के दौरान सूर्य की किरणों को भींग की सहाय्यता से उत्सर्जित किया, भिंग की मदद से पारा ऑक्साइड गर्म कर तरल कर दिया। इस उतसर्जन की वजहसे विघटन होकर पारा अलग हुंवा और इस गर्मी ने पारा को बाधित कर दिया और एक गैस बाहर निकाल दी।
गैस के गुणों की जांच करते समय प्रीस्टलेन ने गैस के पास एक मोमबत्ती की रोशनी लाई। यह ज्वाला और भी तीव्र होकर जलने लगी। इसका मतलब है कि यह गैस सूजन,ज्वलन में मदद कर रही थी। इसके अलावा प्रिस्टलेन ने यह भी पता लगाया कि पौधों से निकलने वाली वायु और पारा ऑक्साइड विघटन से निकली वायु एक ही हैं। उन्होंने इस गैस को स्वयं सुंघा आज़माया। इस रंगहीन, गंधहीन गैस का ऑक्सीजनीकरण, नामकरण 1777 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक लैवोज़िए ने किया था। हमारे द्वारा बनाई जाने वाली गैस ऑक्सी+जीनस प्रसिद्ध हो गई है। पहले प्रयोग के बाद ज्ञात हुआ कि लगभग दो हजार वर्ष लगे और ऑक्सीजन गैस हमें मिली। अगर कोई इंसान भविष्य में अपनी पीठ पर ऑक्सीजन सिलेंडर बांधकर मंगल ग्रह पर रहने की सोचे तो वह यह नहीं भूलेगा कि यहां काफी पीढ़ियां खप जाती हैं।
हमने देखा है कि कितने लोगों पर सिर्फ एक गैस शोध का बोझ डाला जाता है। विज्ञान की यह धारा मनुष्य का कल्याण करती हुई, उसके जीवन को आसान बनाती हुई, उसकी भूख की पहेली सुलझाती हुई निरंतर प्रवाहित होती रही है। आदिमानव से हमारे पूर्वजों ने इस धारा को जोड़ा है। अगर हम पिछले सौ वर्षों के बारे में सोचें तो ये वैज्ञानिक खोपड़ियाँ, दिमाग मानव जीवन को पूरी तरह से बदलने में सफल रही हैं। इसमें भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान भले ही तुलनात्मक रूप से कम लगता है, लेकिन महत्वपूर्ण जरूर है। यह दर कम थी, क्योंकि आज़ाद भारत के सामने बुनियादी सवालों की भरमार थी। फिर भी कुछ वैज्ञानिकों ने अपने चुनाव को विश्व स्तर पर दर्शाया है। भविष्य में जब भारत विकसित देशों की सूची में जाएगा और महाशक्ति बनेगा तो इसमें भारतीय वैज्ञानिकों की बड़ी भूमिका होगी। हालाँकि, इसके लिए विज्ञान संस्कृति के पोषण की आवश्यकता है।
शास्त्र, साइंस या विज्ञान निश्चित रूप से केवल प्रयोगशाला में करने का विषय नहीं है। इसे हमारे दैनिक जीवन में छोटी-बड़ी हर चीज में शामिल किया जाना चाहिए। यहां तक कि प्याज काटना, कोई खेल खेलना या चित्र बनाना भी सबसे छिपा हुआ विज्ञान है। अगर हम इसे समझ लें तो हम इनमें से हर चीज़ का अच्छे से आनंद ले सकते हैं। हम इस पुस्तक में वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोजों को सरल भाषा में समझने जा रहे हैं, और उनकी जीवनी भी देख रहे हैं। ये वैज्ञानिक भी बचपन में हमारे जैसे ही शरारती थे, इनकी जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव आए, कई बार डिप्रेशन हुआ। उन्होंने जीवन में बड़ी गलतियाँ की हैं। तो वे हमारी तरह हड्डी मछली वाले लोग थे। वे जो कर सकते थे, हममें से हर कोई कर सकता था…
डॉक्टर नितिन हांडेकी आने वाली किताब ‘साइंटिस्ट खोपड़ी’ से…